ब्लॉगः जीडीपी में दक्षिण अफ्रिका से भी पीछे भारत,अनुसंधान के लिए प्रावधान में कटौती से पिछड़ता देश
हाल ही में नीति आयोग की अनुसंधान और विकास (आरएंडडी) से जुड़ी ताजा रिपोर्ट आई है
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
हाल ही में नीति आयोग की अनुसंधान और विकास (आरएंडडी) से जुड़ी ताजा रिपोर्ट आई है। इस रिपोर्ट में 2008-09 से 2017-18 तक के वित्तीय वर्षों में अनुसंधान और विकास पर भारत सरकार द्वारा किए खर्च का लेखा-जोखा है। 2008-09 में भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का जहां 0.8 प्रतिशत खर्च करता था, वहीं यह खर्च 2017-18 में घटकर 0.7 प्रतिशत रह गया। इस रिपोर्ट में 2018-19, 2019-2020, 2020-2021 एवं 2021-2022 के वित्तीय वर्षों की जानकारी नहीं है। तय है, इन सालों में भी खर्च बढ़ाया नहीं गया होगा! इस नाते भारत अनुसंधान के पैमाने पर चीन और अमेरिका से तो पीछे है ही, दक्षिण अफ्रीका से भी पिछड़ा है, दक्षिण अफ्रीका में जीडीपी दर 0.8 प्रतिशत है, जो भारत से अधिक है। आरएंडडी पर विश्व का औसत खर्च 1.8 प्रतिशत है, अतएव हम औसत खर्च का आधा भी खर्च नहीं करते हैं। नतीजतन हम नए अनुसंधान, आविष्कार और स्वदेशी उत्पाद में पिछड़े हैं इसीलिए पेटेंट के क्षेत्र में भारत विकसित देशों की बराबरी करने में पिछड़ गया है। यदि यही सिलसिला जारी रहा तो वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारत कैसे टिक पाएगा, यह विचारणीय बिंदु है।
हालांकि नवाचारी वैज्ञानिकों को लुभाने की सरकार ने अनेक कोशिशें की हैं। बावजूद देश के लगभग सभी शीर्ष संस्थानों में वैज्ञानिकों की कमी है। वर्तमान में देश के 70 प्रमुख शोध-संस्थानों में वैज्ञानिकों के 3200 पद खाली हैं। बेंगलुरु के वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद् (सीएसआइआर) से जुड़े संस्थानों में सबसे ज्यादा 177 पद रिक्त हैं। पुणे की राष्ट्रीय रसायन प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों के 123 पद खाली हैं। देश के इन संस्थानों में यह स्थिति तब है, जब सरकार ने पदों को भरने के लिए कई आकर्षक योजनाएं शुरू की हुई हैं। इनमें रामानुजम शोधवृत्ति, सेतु-योजना, प्रेरणा-योजना और विद्यार्थी-वैज्ञानिक संपर्क योजना शामिल हैं। महिलाओं के लिए भी अलग से योजनाएं लाई गई हैं। इनमें शोध के लिए सुविधाओं का भी प्रावधान है। इसके साथ ही परदेश में कार्यरत वैज्ञानिकों को स्वदेश लौटने पर आकर्षक पैकेज देने के प्रस्ताव दिए जा रहे हैं। बावजूद न तो छात्रों में वैज्ञानिक बनने की रुचि पैदा हो रही है और न ही परदेश से वैज्ञानिक लौट रहे हैं। इसकी पृष्ठभूमि में एक तो वैज्ञानिकों को यह भरोसा पैदा नहीं हो रहा है कि जो प्रस्ताव दिए जा रहे हैं, वे निरंतर बने रहेंगे। दूसरे, नौकरशाही द्वारा कार्यप्रणाली में अड़ंगों की प्रवृत्ति भी भरोसा पैदा करने में बाधा बन रही है।
मौजूदा परिदृश्य में कोई भी देश वैज्ञानिक उपलब्धियों से ही सक्षमता हासिल कर सकता है। मानव जीवन को यही उपलब्धियां सुखद और समृद्ध बनाए रखने का काम करती हैं। भारत में युवा उत्साहियों या शिक्षित बेरोजगारों की भरमार है, बावजूद वैज्ञानिक बनने या मौलिक शोध में रुचि लेने वाले युवाओं की संख्या कम है। इसकी प्रमुख वजहों में एक तो यह है कि हम वैज्ञानिकों को खिलाड़ी, अभिनेता, नौकरशाह और राजनेताओं की तरह रोल मॉडल नहीं बना पा रहे हैं। सरकार विज्ञान से ज्यादा महत्व खेल को देती है। दूसरे, उस सूचना तकनीक को विज्ञान मान लिया गया है, जो वास्तव में विज्ञान नहीं है, बावजूद इसके विस्तार में प्रतिभाओं को खपाया जा रहा है। वैज्ञानिक प्रतिभाओं को तवज्जो नहीं मिलना भी प्रतिभाओं के पलायन का एक बड़ा कारण है। जाहिर है, हमें ऐसा माहौल रचने की जरूरत है, जो मौलिक अनुसंधान व शोध-संस्कृति का पर्याय बने। इसके लिए हमें उन लोगों को भी महत्व देना होगा, जो अपने देशज ज्ञान के बूते आविष्कार में तो लगे हैं, लेकिन अकादमिक ज्ञान नहीं होने के कारण उनके आविष्कारों को वैज्ञानिक मान्यता नहीं मिल पाती है। इस नाते कर्नाटक के किसान गणपति भट्ट ने पेड़ पर चढ़ने वाली मोटरसाइकिल बनाकर एक अद्वितीय उदाहरण पेश किया है। लेकिन इस आविष्कार को न तो विज्ञान सम्मत माना गया और न ही गणपति भट्ट को अशिक्षित होने के कारण केंद्र या राज्य सरकार से सम्मानित किया गया। यह व्यवहार प्रतिभा का अनादर है।
दरअसल बीते 75 सालों में हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी अवधारणाओं का शिकार हो गई है, जिसमें समझने-बूझने के तर्क को नकारा जाकर रटने की पद्धति विकसित हुई है। दूसरे संपूर्ण शिक्षा को विचार व ज्ञानोन्मुखी बनाने की बजाय, नौकरी या करियर उन्मुखी बना दिया गया है। इस परिदृश्य को बदलने की जरूरत है।