किसान-मजदूरों के सच्चे दोस्त थे बाबू नारायण सिंह !

बाबू नारायण सिंह संपादक ‘देहात’ राजरूप सिंह वर्मा के अंतरंग मित्रों में थे

Update: 2022-07-20 18:15 GMT

बाबू नारायण सिंह संपादक 'देहात' राजरूप सिंह वर्मा के अंतरंग मित्रों में थे। जब मैं किशोर अवस्था में था तब महीने में दो-चार बार उनके दर्शन हो जाते थे। तब 'देहात प्रेस' सरवट रोड- कच्ची सड़क पर था। नसीरपुर के अपने कृषि फार्म से लौटते हुए कभी-कभी प्रेस पर रुक जाते थे। खुली छत की एक लाल रंग की गाड़ी में पीछे चरी या घास रखी होती थी जो सिविल लाइन स्थित कोठी पर पाली गई गायों के लिए होती थी।

तब पूरी तरह सक्रिय राजनीति में नहीं आए थे। जिले के बड़े और ईमानदार वकीलों में उनकी गिनती होती थी लेकिन मुव्वकिलों के मुकदमे लड़ने के बजाय दोनों पक्षों में समझौता कराने में उनकी दिलचस्पी अधिक रहती थी। बाबू जी दोनों फरीकों को समझाते थे कि मुकदमे से दोनों की हानि है। वकालत के पेशे में रह कर मुकदमा न लड़ने की सलाह देने वाले शायद वे इकलौते वकील थे। अपने जीवन में बाबू जी ने समझौते कराने का वह रिकॉर्ड बनाया जो आज तक नहीं टूट पाया।
सक्रिय राजनीति किसान नेता वीरेन्द्र वर्मा के साथ शुरू की। राजनीति क्षेत्र में दोनों को राम-लक्ष्मण की जोड़ी कहा जाता था। यह वह समय था जब विपक्ष आस्तित्वहीन था। जिला स्तर से लेकर प्रदेश स्तर तक कांग्रेसजन आपस में ही उठा पटक करते रहते थे। एक प्रकार से कांग्रेस के भीतर शहरी और ग्रामीण नेतृत्व की लड़ाई रहती थी।
तब डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का नाम बदल कर अंतरिम जिला परिषद रखा गया था। वर्मा गुट से बाबू जी चुनाव लड़े और विजयी रहे। एक घटना मुझे याद आ रही है। डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का एक विज्ञापन 'देहात' में प्रकाशित हुआ था किन्तु उसका भुगतान नहीं हो पा रहा था। तब बनवारीलाल शर्मा डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन थे। वासुदेव प्रसाद जैन सेक्रेट्री थे। उन्होंने बताया कि चेयरमैन साहब बिल मंजूर नहीं कर रहे हैं। इसका कारण भी उन्होंने धीरे से बता दिया। वर्षों तक 'देहात' का बिल पेंडिंग पड़ा रहा। बाबू जी को इसका कारण पता था।
अंतरिम जिला परिषद के अध्यक्ष चुने जाने के बाद जब कार्यालय में बैठे तो शाम से पहले उनका फोन आया। पिताश्री से बोले 'देहात साहब, बहुत जरूरी काम है, फौरन बोर्ड के दफ्तर आ जाओ।' वे पहुंचे तो बोले- आपका पेमेंट बहुत दिनों से रुका पड़ा था, इसका चैक रखिए।
सच्चाई, सादगी-सरलता और स्पष्टवादिता बाबू नारायण सिंह के विशेष गुण थे। राजनीतिक मामलों में पिताश्री से विचार-विमर्श होता था। कांग्रेस में ऊपर तक अंतर्द्वंद था। पिताश्री के परामर्श पर चौधरी चरणसिंह के साथ आ गए थे। मुलायम सिंह यादव जब नसीरपुर फार्म पर श्रद्धांजलि अर्पित करने आए थे तो उन्होंने बाबु जी के विषय में पुस्तक छापने की सलाह दी थी। बाबू जी की स्मृति में बाद में जो स्मारिका प्रकाशित हुई उसका संपादन करने का सौभाग्य मुझे मिला था।
बाबू जी की एक अन्य विशेषता उनका वास्तविक सेक्युलर होना था। पूरे जीवन भर उन्होंने आदमी को हिन्दू मुस्लिम नज़रिये से नहीं देखा। वे सच्चे सेक्युलरिस्ट थे, छद्म या एजेंडावादी सेक्युलर नहीं थे। पुण्य तिथि पर मैं बाबू जी को उसी वेदना और भावना से याद कर रहा हूँ जैसे पिताश्री को याद करता हूँ।
गोविन्द वर्मा
संपादक 'देहात'


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