दिलासा के पुल पर खड़ी घोषणाएं

जो शुरू ही नहीं हुआ, उसे आपने खत्म घोषित कर दिया। आज पूरा देश जैसे माला पहनने और पुष्पित अभिनंदन करवाने की जल्दबाजी में लगा नज़र आता है

Update: 2022-06-01 19:07 GMT

जो शुरू ही नहीं हुआ, उसे आपने खत्म घोषित कर दिया। आज पूरा देश जैसे माला पहनने और पुष्पित अभिनंदन करवाने की जल्दबाजी में लगा नज़र आता है। यहां तो उनका उद्घाटन और अभिनंदन कर देने की प्रथा एक साथ बनती नज़र आती है। यह केवल स्व नियोजित साहित्य समारोहों में ही नज़र नहीं आता, कि आप अपने पैसे से पुस्तक छपवाएं और उसके लोकार्पण के दिन ही अपना अभिनंदन भी करवा लें। इन किताबों के शीर्षक उछालने में भी कोताही नहीं होती। जुमा जुमा आठ दिन हुए साहित्य से लुकाछिपी खेलते हुए और पुस्तक के आवरण पर शीर्षक जमा दिया, 'इस देश के सर्वश्रेष्ठ लेखक।' इतना ही क्यों, कुछ तो यहां अपने आपको विश्व के चुनिंदा लेखकों में से घोषित करते नज़र आते हैं। तबीयत नहीं भरी तो इससे आगे जा इस सदी, इक्कीस सदी का सरताज लेखक घोषित कर दिया। यह न पूछ लेना कि आपको यह विशेषण घोषित करने का अधिकार किसने दिया। यह किसी ऐसे निर्णायक मंडल के महानुभावों का नाम ले देंगे, जो स्वयं भी बरसों साहित्य की पहचान के चौराहे पर ठिठके-ठिठके व्यतीत हो गए।

जनाब, आजकल महामारी के दिनों में सामाजिक अंतर रख कर जीने का रिवाज़ बन गया है। इसलिए आपके साहित्य के लिए पाठक वर्ग और आपकी किसी अन्य उपलब्धि के लिए करतल ध्वनि से तालियां बजाते दर्शक वर्ग की ज़रूरत ही नहीं रही। ऑनलाइन वैबिनार आयोजित कीजिए, इंटरनैट पर अवतरित होकर कल्पना कीजिए कि आप लाखों घरों में एक साथ प्राकशित हो गए। ऑनलाइन इन सम्मान समारोहों ने तो कल पैदा हुए लोगों को भी अंतरराष्ट्रीय व्यक्तित्व बना दिया। बस कल्पना कीजिए, कि लाखों लोग आपके प्रभावशाली व्यक्तित्व का स्वागत कर रहे हैं। आपकी बात कम सुनते हैं, बस तालियां पीटते जा रहे हैं। वैसे बंधु, आपके पास कहने के लिए था भी क्या, बस इस काबिले गौर जिक्र के कि आप जैसा अभिभूत कर देने वाला व्यक्तित्व न कोई पिछले जन्म में था, न कोई अगले जन्म में होगा। इस गुज़रते जन्म में तो आपकी शोभा अनिवर्चनीय है ही। जी नहीं, यह बात केवल स्व-प्रचारित लेखकों, नाटक अभिनेताओं, खिलाडि़यों या गायकों के लिए ही नहीं हो रही। रातों-रात चोला बदल कर अपने महान अवतरण की घोषणा करने वाले आज आपको हर क्षेत्र में नज़र आते हैं।
कल तक जो सरहदों पर तस्करी और सरकारी दफ्तरों में दलाली खा आपको काम करवा देने का भरोसा दे रहे, आज वही हर प्रकार के असामाजिक, अनैतिक धंधों के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करते नज़र आते हैं। आपके सामने भेंट किए गए पैसों को खुर्द-बुर्द कर वे 'रिश्वत लेना और देना गुनाह है' का नारा लगा सामाजिक शुचिता के लिए बलिहान हो जाने का तेवर दिखाते हैं। 'जब तक किसी आरोपी पर आरोप प्रमाणित न हो जाए, वह न तो अपराधी है और न उसे दंड दिया जा सकता है।' बस कानून की इसी पतली गली का इस्तेमाल करके ही आज केवल नेता भवन और पार्टी कार्यालय ही नहीं देश की विधानसभाएं और संसद तक इन मुजरिम चेहरों से भरी नज़र आती है। न ये आरोपित अपराधी प्रमाणित होंगे और न ही इन्हें देश का दंड विधान, कानून के रखवालों और समाज के भद्र लोगों की श्रेणी से बाहर कर सकेगा। देश की जिस युवा पीढ़ी को वास्तव में कानून का रखवाला बनना चाहिए था, या अपने सजग चिंतन के साथ समाज को नया रूप देते हुए दिखना चाहिए था, वह भी हैं, पहले रोज़गार मेलों का कतारों में खड़े होकर अपने लिए रोज़गार की दिलासा प्राप्त कर रहे थे, अब ऑनलाइन रोज़गार मेलों में घोषणाओं के भ्रमजाल में जी रहे हैं। घोषणाओं के इस पुल से बेकारी, भूख और निट्ठलापन उनका अभिनंदन करने के लिए उतरता रहता है।
सुरेश सेठ
sethsuresh25U@gmail.com

सोर्स- divyahimachal


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