हालांकि यह सच है कि अमेरिका कभी युद्ध में शामिल नहीं होना चाहता था। वह एक व्यापारी के तौर पर अपने देश को आगे ले जाना चाहता था। प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भी ऐसा देखा गया है कि अमेरिका कभी स्वयं मैदान में नहीं आया। द्वितीय विश्व युद्ध से अमेरिका एक सुपर पावर के रूप में उभर कर आया। पर जैसे ही जापान ने अमेरिका के पर्ल हार्बर पर हमला किया, उसे उसके बदले में भारी नुकसान झेलना पड़ा। अमेरिका ने हिरोशिमा और नागासाकी पर दो बड़े विनाशकारी बम गिरा दिए। इसके बाद से पूरी दुनिया में अमेरिका की एक अलग छवि उभर कर आई। तभी से दुनिया भर में परमाणु हथियारों को लेकर एक अलग जंग छिड़ गई। इसके बाद अमेरिका ने जापान को किसी भी तरीके के हथियार रखने से रोक दिया। जापान में अमेरिकी सेना ही सेवा में रहती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अमेरिका अपनी रणनीति में कामयाब रहा।
दूसरी ओर यह भी देखा गया है कि जब भी विश्व में कहीं युद्ध जैसे हालात बने हैं तो अमेरिका ने उन कमजोर देशों का साथ दिया जिनके पास हथियार की कमी रही। वहां अमेरिका एक व्यापारी के रूप में सामने आया। लगभग दो दशक पहले अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले में लगभग तीन हजार लोगों की जान गई थी। इसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान में अल कायदा को मिटाने के लिए लाखों लोगों की जान ले ली थी। अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए उसने अपने हथियारों के साथ सेना को अफगानिस्तान में भेजा। वर्ष 2001 के बाद से अमेरिका वहां अपना सैन्य अड्डा बनाकर बैठा था। इन दो दशकों के दौरान अमेरिका ने अफगानिस्तान में अपनी सेना पर 2.3 खरब डालर खर्च किए। इतना सब होने के बावजूद अमेरिकी सेना को खाली हाथ लौटना पड़ा। क्या हम इससे यह समझ सकते हैं कि अमेरिका ने अफगानिस्तान को एक 'खरीदारÓ के रूप में इस्तेमाल किया।
दरअसल अमेरिका व्यापार में इतना आगे बढऩा चाहता है कि उसने आस्ट्रेलिया के साथ एक ऐसे समझौते पर हस्ताक्षर किया जो फ्रंास पहले से ही उसके साथ करना चाहता था। परिणामस्वरूप अमेरिका को फ्रांस की नाराजगी झेलनी पड़ी। अमेरिका ने यूनाइटेड किंगडम और आस्ट्रेलिया के साथ मिलकर जो डील की थी, वह एक परमाणु पनडुब्बी बनाने की थी। आस्ट्रेलिया, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका ने मिलकर एक संगठन बनाया जिसका नाम 'आकसÓ था। इससे फ्रांस नाराज हो गया और उसने यह भी कहा कि उसके साथ विश्वासघात हुआ है। इसके जवाब में अमेरिका ने कहा कि वह फ्रांस को मना लेगा। फ्रांस को गलतफहमी हुई है जिसके चलते वह हमसे नाराज है। फ्रांस का यह कहना था कि यह डील उसके साथ होने वाली थी। इसलिए फ्रांस ने आस्ट्रेलिया से अपने राजदूत को वापस बुला लिया। इससे अमेरिका और फ्रांस के बीच दूरियां बढऩे लगीं। अमेरिका फ्रांस को इसलिए भी नहीं नाराज कर सकता, क्योंकि वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य है और अमेरिका के किसी भी निर्णय को वीटो के माध्यम से सफल होने से रोक सकता है। साथ ही वह नाटो का सदस्य भी है। फ्रांस और जर्मनी यूरोपियन यूनियन में एक ताकतवर देश रहे हैं। ऐसे में फ्रांस का यह रवैया इस समूह में उसकी एक अलग छवि प्रस्तुत करेगा।
देखते ही देखते इस व्यापार की दौड़ में फ्रांस ने चीन से हाथ मिला लिया। चीन के साथ मिलकर फ्रांस ने एक थर्ड पार्टी का गठन किया जिसमें उसने 1.7 अरब डालर की डील साइन की। साथ ही ईरान के परमाणु समझौते को बढ़ावा देने के लिए फ्रांस और चीन साथ आए। यहां तक कि फ्रांस ने इंडोनेशिया के साथ 42 राफेल विमान की डील भी साइन की।
इस प्रकार एक तरफ फ्रांस का यह बढ़ता व्यापार तो दूसरी ओर रूस का यूक्रेन पर हमला। आखिर रूस इतना क्रूर व्यवहार क्यों दिखा रहा है? तो इसके पीछे फिर वही अमेरिका है। अमेरिका बार बार यूक्रेन को उकसा रहा था, क्योंकि वह रूस को घेरना चाहता है ताकि वह रूस पर दबाव बना सके। रूस की क्रांति के नायक रहे व्लादिमीर लेनिन ने कहा था,'यूक्रेन को गंवाना वैसा ही होगा जैसे एक शरीर से उसका सिर अलग हो जाए।Ó रूस के लिए यूक्रेन भौगोलिक रूप से भी बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिए वह उसे नाटो का सदस्य बनने नहीं देना चाहता है। यूक्रेन ने रूस के लिए दोनों विश्व युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। रूस ने यूक्रेन से ही अपनी मदद की थी। अगर यूक्रेन नाटो का सदस्य बनता है तो वह रूस की राजधानी मास्को तक पहुंचना अमेरिका के लिए आसान हो जाएगा, वहां से केवल 640 किलोमीटर की ही दूरी रह जाएगी। यूक्रेन नाटो का सदस्य बनना चाहता है जिससे रूस उस पर कब्जा न कर सके, क्योंकि वह जानता था कि वह अकेला रूस से नहीं जीत सकता। इसी कारण वह यूरोपियन यूनियन में शामिल हो गया और अब नाटो का सदस्य बनना चाहता था। इसी का फायदा अमेरिका ने उठाया और यूक्रेन को युद्ध के लिए उकसाया।