आखिर हम आतंकियों को प्राथमिकता के आधार पर जल्द सजा क्यों नहीं सुना सकते?
मार्च, 2006 को वाराणसी में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों में शामिल आतंकी वलीउल्लाह को गाजियाबाद के जिला एवं सत्र न्यायालय ने फांसी की सजा सुनाते हुए कहा कि उसका अपराध दुर्लभतम श्रेणी का है
राजीव सचान।
सोर्स- Jagran.TV
मार्च, 2006 को वाराणसी में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों में शामिल आतंकी वलीउल्लाह को गाजियाबाद के जिला एवं सत्र न्यायालय ने फांसी की सजा सुनाते हुए कहा कि उसका अपराध दुर्लभतम श्रेणी का है। इस पर गौर करें कि आतंक के जिस मामले को दुर्लभतम श्रेणी का अपराध माना गया, उसमें सजा सुनाने में 16 साल लग गए। कोई नहीं जानता कि इस मामले में अंतिम फैसला कब आएगा? इसमें चार-छह-आठ साल की देरी हो तो हैरत नहीं। वलीउल्लाह और उसके साथियों ने 2006 में होली के दिन संकट मोचन मंदिर और वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन के विश्रम कक्ष के सामने धमाके किए थे। इन धमाकों में 18 लोग मारे गए थे और सौ के करीब घायल हुए थे। वलीउल्लाह के अन्य फरार साथी अभी भी पुलिस की पहुंच से दूर हैं।
जब वलीउल्लाह पकड़ा गया तब मुलायम सिंह मुख्यमंत्री थे। उनके बाद मायावती मुख्यमंत्री रहीं और फिर अखिलेश यादव। 2012 में अखिलेश सरकार ने वलीउल्लाह पर चल रहा मुकदमा वापस लेने की पहल की। सौभाग्य से यह पहल नाकाम रही। सपा सरकार ने वलीउल्लाह के अलावा कई अन्य संदिग्ध आतंकियों के भी मुकदमे वापस लेने की पहल की थी। इनमें से कई बाद में दोषी पाए गए। वलीउल्लाह के पहले यासीन मलिक को आतंकी फंडिग के मामले में सजा सुनाई गई। उसे इस मामले में सजा सुनाने में 31 साल लग गए। जी हां, 31 साल। उसकी सजा पर कश्मीर में तो उसके प्रति हमदर्दी के स्वर सुनाई ही दिए, पाकिस्तान को भी मिर्ची लगी। इसके अलावा इस्लामी देशों के संगठन ओआइसी को भी दर्द हुआ। दर्द भारत के भी कुछ कथित बुद्धिजीवियों और मानवाधिकारों का मुखौटा लगाकर नक्सलियों, आतंकियों और अराजक तत्वों की पैरवी करने वालों को हुआ। अपने अतिवादी नजरिये के लिए कुख्यात एक आनलाइन पोर्टल ने लिखा कि यासीन मलिक को उम्रकैद कश्मीर समस्या का हल नहीं है।
अपने देश में खुद के सीने पर सेक्युलर-लिबरल होने का तमगा लगाने वालों में आतंकियों, नक्सलियों और अराजक तत्वों के समर्थन की होड़ लगी रहती है। क्या इसे भूला जा सकता है कि नक्सलियों को किस तरह बंदूकधारी गांधी बताया गया था? यह भी नहीं भूलिए कि जब मुंबई में भीषण बम धमाकों के लिए जिम्मेदार आतंकी याकूब मेमन को फांसी दी गई तो एक अंग्रेजी दैनिक ने किस तरह लिखा था- 'एंड दे हैंग्ड याकूब मेमन।' यह वही याकूब था, जिसके लिए आधी रात को सुप्रीम कोर्ट खुला था, क्योंकि कुछ कथित मानवाधिकारवादी उसकी फांसी की सजा रुकवाना चाहते थे। गनीमत यह रही कि उनकी दाल आधी रात को भी नहीं गली और याकूब को तय वक्त पर फांसी दे दी गई।
वलीउल्लाह और यासीन मलिक के पहले इसी साल फरवरी में गुजरात की एक अदालत ने 2008 में अहमदाबाद में किए गए बम धमाकों के लिए दोषी पाए गए आतंकियों को सजा सुनाई थी। यह फैसला इसलिए चर्चा का विषय बना, क्योंकि इसमें 49 में से 38 आतंकियों को मौत की और 11 को उम्रकैद की सजा सुनाई गई। इन आतंकियों ने अहमदाबाद के विभिन्न स्थानों पर 70 मिनट के भीतर 22 धमाके किए थे। इनमें करीब 56 लोगों की जान गई थी और 200 से अधिक घायल हुए थे। इस पर फिर से गौर करें कि आतंक की इतनी बड़ी घटना में फैसला आने में करीब 14 साल लग गए। आतंकवाद के गंभीर मामलों में इतनी देर से फैसला आना यही बताता है कि आतंक से लड़ाई लड़ने में शिथिलता कायम है। कभी जांच एजेंसियां सुस्ती दिखाती हैं तो कभी अदालतें। आखिर हम आतंकियों को प्राथमिकता के आधार पर जल्द सजा क्यों नहीं सुना सकते?
अहमदाबाद में बम धमाकों के लिए जिन आतंकियों को सजा सुनाई गई, उनमें कुछ वे भी थे, जो दिल्ली के बाटला हाउस में हुई मुठभेड़ के दौरान भाग निकले थे। इस मुठभेड में दो आतंकी मारे गए थे। उनसे मुकाबला करते हुए दिल्ली पुलिस के जांबाज इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा को सर्वोच्च बलिदान देना पड़ा था। इसके बाद भी नेताओं में इस मुठभेड़ को फर्जी बताने की होड़ लग गई थी। हालांकि तत्कालीन गृहमंत्री चिदंबरम इस मुठभेड़ को सही बता रहे थे, लेकिन उनकी ही पार्टी के कई नेता उसे गलत साबित करने पर आमादा थे। इनमें दिग्विजय सिंह और सलमान खुर्शीद भी थे। खुर्शीद ने तो एक चुनावी सभा में यह तक कह दिया था कि जब उन्होंने बाटला हाउस में मारे गए लड़कों के फोटो मैडम सोनिया को दिखाए तो उनकी आंखों से आंसू फूट पड़े। बाद में जब इस मुठभेड़ की सत्यता पर अदालतों की मुहर लगी तो इन नेताओं के लिए मुंह छिपाना मुश्किल हो गया, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे आगे आतंकियों और अराजक तत्वों की पैरवी नहीं करेंगे।
देश ने यह अच्छे से देखा है कि लश्कर की आतंकी इशरत जहां को किस प्रकार सीधी-सादी, बेचारी लड़की बताया गया था। देश ने यह तो अभी हाल में देखा कि शाहीन बाग के अराजक धरने और किसान हित की आड़ में दिल्ली को बंधक बनाने की हरकतों को कई राजनीतिक दलों के साथ सेक्युलर-लिबरल तत्वों ने किस बेशर्मी से सही ठहराया था। यह शायद इन सबकी ओर से बनाए गए माहौल का ही दुष्परिणाम रहा कि सुप्रीम कोर्ट ने न तो शाहीन बाग के अराजक धरने के खिलाफ कुछ किया और न ही कथित किसानों की ओर से दिल्ली की घेराबंदी को खत्म करने के लिए कुछ किया। यदि आतंक और अराजकता के खिलाफ सुरक्षा एजेंसियों और अदालतों की सुस्ती कायम रही तो आतंकवाद से लड़ाई लड़ना और कठिन ही होगा। ध्यान रहे जब अराजक तत्वों के प्रति नरमी बरती जाती है तो उससे अन्य अतिवादी तत्वों के साथ आतंकियों को भी बल मिलता है।