28 साल बाद जेन कैंपियन और स्पीलबर्ग फिर आमने-सामने थे, लेकिन इस बार अवॉर्ड जेन कैंपियन को मिला
जेन को इस क्षण के लिए 28 साल लंबा इंतजार करना पड़ा, लेकिन आखिरकार अब दुनिया बदल रही है
मनीषा पांडेय।
इतिहास कुछ इस तरह खुद को दोहराता है. 28 साल पहले 1994 में जब जेन कैंपियन को फिल्म 'द पियानो' के लिए बेस्ट डायरेक्टर की श्रेणी में ऑस्कर के लिए नॉमिनेट किया गया तो उनके सामने प्रतिद्वंदिता में खड़े थे स्टीवन स्पीलबर्ग. एकेडमी अवॉर्ड स्पीलबर्ग को दिया गया. 28 साल बाद एक बार फिर जब जेन कैंपियन को उनकी फिल्म द पावर ऑफ द डॉग के लिए बेस्ट डायरेक्टर की श्रेणी में नामित किया गया तो इस बार फिर उनके सामने प्रतिद्वंद्वी के रूप में खड़े थे स्टीवन स्पीलबर्ग. फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार अवॉर्ड जेन कैंपियन को मिला है.
जेन को इस क्षण के लिए 28 साल लंबा इंतजार करना पड़ा, लेकिन आखिरकार अब दुनिया बदल रही है. पिछले साल ऑस्कर के इतिहास में पहली बार एक साथ दो स्त्रियों को बेस्ट डायरेक्टर की श्रेणी में नामित किया गया और अवॉर्ड मिला नोमैडलैंड के लिए क्लोई झाओ को. इस बार भी ये अवॉर्ड एक महिला निर्देशक को मिला है. उम्मीद है अगले साल और आने वाले अनेक सालों तक महिलाओं इस अवॉर्ड पर और संसार की तमाम सफलताओं पर काबिज मर्दों के एकछत्र एकाधिकार को चुनौती दे रही होंगी.
1994 में 66वें एकेडमी अवॉर्ड में जेन कैंपियन का नाम बेस्ट डायरेक्टर की श्रेणी में नॉमिनेट हुआ था. फिल्म थी, 'द पियानो.' ऑस्कर के इतिहास में यह दूसरी बार था कि इस श्रेणी में किसी महिला फिल्म निर्देशक को जगह मिली थी. इसके पहले 1976 में लीना वर्टमुलर को फिल्म 'सेवन ब्यूटीज' के लिए बेस्ट डायरेक्टर की श्रेणी में नामित किया गया, लेकिन अंत में अवॉर्ड मिला जॉन जी. अविल्डसन को फिल्म 'रॉकी' के लिए. उसी साल स्वीडन के कल्ट निर्देशक इंगमार बर्गमैन भी अपनी फिल्म 'फेस टू फेस' के लिए नामित थे.
ऑस्कर तक की यात्रा तय करने से पहले 'द पियानो' पूरी दुनिया में ढेर सारी तारीफें और अवॉर्ड बटोर चुकी थी. कोई वजह नहीं थी अपने समय से आगे की इस क्लासिक फिल्म को अवॉर्ड न मिले, लेकिन द पियानो के सामने जो दूसरी फिल्म थी, वो अपने कथानक, कहन, ऐतिहासिक विषय और निर्देशन में इतनी बड़ी थी कि अंतत: ऑस्कर उसकी ही झोली में गिरा. फिल्म थी स्टीवन स्पीलबर्ग की 'शिंडलर्स लिस्ट.'
फिल्म 'द पावर ऑफ द डॉग'
उस साल जेन कैंपियन को ऑस्कर भले न मिला हो, लेकिन बतौर फिल्म निर्देशक जेन कैंपियन की प्रतिभा और काबिलियत की चमक से सबके मन रौशन हो गए थे. आज 28 साल बाद भी वो फिल्म उतनी ही प्रांसगिक है और उतनी ही जरूरी है.
28 साल बाद एक बार फिर जेन कैंपियन ने इतिहास रच दिया है क्योंकि एकेडमी अवॉर्ड के इतिहास में बेस्ट डायरेक्टर की कैटेगरी में दो बार नॉमिनेशन पाने वाली वो पहली महिला बन गई हैं. जेन कैंपियन का सम्मानित होना कई मायनों में ऐतिहासिक है. जब वो स्टेज पर अवॉर्ड लेने के लिए पहुंची तो जिस तरह बिना नाम लिए और बिना ज्यादा कुछ कहे उन्होंने इशारों ही इशारों में इस ओर इशारा कर दिया कि कैसे एक औरत होने के कारण उन्हें मर्दों से मुकाबला करना पड़ता है. ये एक वाक्य न सिर्फ जेन के अवॉर्ड बल्कि ऑस्कर के लिए 94 सालों के इतिहास की केंद्रीय पटकथा है. न सिर्फ ऑस्कर, बल्कि जीवन के सभी क्षेत्रों में, सभी सत्ता और ताकत के केंद्रों में, जहां मर्दों का एकछत्र आधिपत्य है और जहां अपनी थोड़ी सी जगह बनाने के लिए ऑरतों को खासा संघर्ष करना पड़ता है. जेन कैंपियन ने आखिर कह ही दिया कि चूंकि उनका मुकाबला मर्दों के एकछत्र साम्राज्य से था तो उनका रास्ता कितना मुश्किल था.
कुछ वैसा ही मुश्किल रास्ता, जो उनकी फिल्म द पियानो की नायिका का रास्ता था. अपने एक अदद पियानो को पाने के लिए उस स्त्री को कितने कठिन रास्तों, चुनौतियों और समझौतों की राह चुननी पड़ती है. कितनी मुश्किलों से गुजरना पड़ता है. औरतों की सुनाई कहानियों को जगह देने, सम्मान देने और रिकग्नाइज करने का एक अर्थ यह भी है कि हमारे हिस्से का इतिहास, हमारे हिस्से की कहानी हमारी निगाहों से और हमारे शब्दों में सुनी जाए. वरना कहानी तो हमारी पहले भी सुनाई जाती रही है, लेकिन मर्द जिस तरह सुनाते हैं, उसमें हमारा सच कम और उनका पूर्वाग्रह ज्यादा होता है.
फिल्म 'द पियाना' का एक दृश्य
जेन कैंपियन मेल गेज को समझने के लिए भी एक कल्ट की तरह हैं. कैमरे के पीछे अगर एक औरत की निगाह हो तो स्त्री और उसकी देह को कैसे देखती है, इसे समझने के लिए भी द पियानो देखी जानी चाहिए. जेन कैंपियन जब दिखाती हैं तो ढेर सारी स्पॉट लाइट की चौंधिया देने वाली रौशनी में बिलकुल चमकता हुआ बेदाग चमकीला चेहरा और शरीर नहीं दिखाई देता. उसकी जगह दिखती हैं औरत की आंखें और उन आंखों में एक-एक पल में बदलते हुए भाव. उसके चेहरे की झुर्रियां दिखती हैं, पैरों की थकान दिखती है, आंखों का डर और बेचैनी दिखती है. उसका शरीर भी वैसे ही दिखता है, जैसा किसी इंसान का होता है. उम्र और अनुभवों के निशानों से भरा. वो वैसा नहीं दिखता, जैसा स्पीलबर्ग की वेस्टसाइड स्टोरी में भी दिख रहा है. वो एक असंभव फंतासी, असंभव सपने की तरह नहीं दिखता. वो सच की तरह दिखता है, जिंदगी की तरह दिखता है.
पिछले साल जनवरी में अमेरिका की सैन डिएगो यूनिवर्सिटी ने एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक हॉलीवुड के इतिहास में 2020 में महिलाओं ने सबसे ज्यादा फिल्में बनाई थीं. उनकी आंकड़ों के मुताबिक 2020 में 16 फीसदी फिल्में स्त्री फिल्मकारों की बनाई हुई थीं, जो 2019 के मुकाबले चार फीसदी और 2018 के मुकाबले 8 फीसदी ज्यादा थी. चूंकि महिलाओं ने ज्यादा फिल्में बनाईं तो उन्हें नॉमिनेशन, रिकग्निशन और अवॉर्ड भी ज्यादा मिले. इस साल की सूची अभी जारी नहीं हुई है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि अब हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा और काबिलियत दिखाने वाली औरतों की संख्या लगातार बढ़ रही है. सिनेमा में स्त्रियों का रचनात्मक योगदान बढ़ रहा है. उनकी ताकत बढ़ रही है. शायद धीरे-धीरे ही सही, वो दुनिया बन रही है, जहां संभावनाओं और उम्मीदों के दरवाजे स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान रूप से खुल रहे हैं. बराबर की जगह पर दोनों का बराबरी की दावा है. स्त्रियां अपनी कहानी सुना रही हैं ताकि ताकतवर लोग अब और उनकी कहानी को मैनिपुलेट न कर पाएं.