इन 20 वर्षों में पश्चिमी मीडिया में इस बात का कोई प्रचार नहीं है कि हजारों मील दूर से ड्रोन हमलों में कितने हजारों निर्दोष लोग मारे गए हैं. अफगानिस्तान ने अपने सीने पर किस प्रकार से 3,000 से अधिक ड्रोन हमलों को बर्दाश्त किया है, किस प्रकार से 'मदर ऑफ ऑल बॉम्ब्स' जो 25 से 30 मीटर की ठोस कंक्रीट को भेदने में सक्षम है और परमाणु बम के बाद अब तक के सबसे शक्तिशाली बम को झेला है.
सच तो यह है कि पिछले बीस वर्षों में अफगानिस्तान संयुक्त राज्य अमेरिका सहित नाटो राष्ट्रों के सभी नए आधुनिक हथियारों के लिए एक प्रयोगशाला बन गया था. हमें अफगानिस्तान के बारे में ज्यादातर पश्चिमी मीडिया के माध्यम से पता चलता है. सच तो यह है कि बाहरी दुनिया को अफगानिस्तान के बारे में बहुत कम जानकारी है.
अफ़गान में जनजातीय निष्ठा, जनजाति के हित, धार्मिक निष्ठा से बढ़कर हैं
प्रोफेसर थॉमस बारफील्ड (Professor Thomas Barfield) 1971 से अफगानिस्तान पर शोध कर रहे हैं. वह मानव विज्ञान (Anthropology) के शोधकर्ता है. उनके जैसा कोई दूसरा व्यक्ति नहीं है जो अफगान के जातीय इतिहास, जाति, जनजाति, धार्मिक विचार, राजनीतिक इतिहास से परिचित हो. उनके अनुसार, अफगान समाज अत्यधिक रूढ़िवादी है और धार्मिक सोच से प्रेरित है. जनजातीय निष्ठा, जनजाति के हित यहां धार्मिक निष्ठा से बढ़कर है. अफगानिस्तान के लोग बहुत मेहमाननवाज हैं, लेकिन जब अपने कबीले की गरिमा को ठेस पहुंचाने की बात आती है तो वे बहुत निर्दयी हो जाते हैं.
ऐसी ही एक घटना 1839 में देखने को मिली, उस वक्त एक ब्रिटिश जासूस विलियम ब्रायडेन को स्थानीय अफगान महिलाओं के साथ कथित रूप से मेल-जोल करने के कारण अफगानों द्वारा उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिए गये थे. जब कंधार में उनके घर को घेर लिया गया, तो उस वक्त उन्हें दो अफगान महिलाओं के साथ बात करते हुये देखा गया और बाद में अफगानों ने उनकी लंबी परंपरा (आश्रित अतिथि की रक्षा) को भुलकर, उन्हे बेरहमी से मारकर, उनके सिर को खंभे पर लटका दिया था. बाद में, ब्रिटिश जनरल लुई कैविनारी ने प्रथम एंग्लो-अफगान युद्ध से जो तीन सबक सीखे, उनमें से एक था- 'कभी भी किसी स्थानीय लड़की को न छूएं'.
पश्चिमी संस्कृति के विकास को सामान्य अफगान संदेह की दृष्टि से देखते हैं
अफगान समाज में आधुनिकता की शुरुआत उन्नीसवीं सदी में अफगान राजा अमानुल्लाह के दौरान हुई. वह ब्रिटेन से मोटर कार लाए थे और पैंट और शर्ट पहनावे को लोकप्रिय बनाने के लिए दर्जी को भी लाए थे. लेकिन सत्ता के नजदीक रहने वाले अभिजात वर्ग का यह विदेशी पहनावा साधारण अफगानों को पसंद नहीं आया.
60 और 70 के दशक में राजा जहीर शाह के शासनकाल के दौरान शिक्षा, विशेष रूप से महिला शिक्षा का प्रचलन शुरू हुआ और ये आधुनिक शिक्षाएं केवल नगर-आधारित थीं. अफगानिस्तान की दूर दराजों में रहने वाली विशाल आबादी अपने-अपने कबीलों की सख्ती के कारण कभी भी धार्मिक स्कूलों और उसके पाठ्यक्रम से आगे नहीं बढ़ पायी है. धार्मिक नेताओं ने हमेशा पश्चिमी संस्कृति का कड़ा विरोध किया है. दरअसल, हिजाब-घूंघट-दाढ़ी-पगड़ी सदियों से चली आ रही अफगान की परंपरा है. तालिबान से पहले भी ज्यादातर महिलाओं की यही पोशाक थी और तालिबान के चले जाने के बाद भी दूरदराज इलाकों में यही पोशाक जारी रही.
अफगानिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने शासनकाल के दौरान बलपूर्वक इसे रोकने का प्रयास किया था, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली और वह खुद इतिहास बन गए. हकीकत तो यह है कि आधुनिकता के नाम पर मिनी स्कर्ट या बिकनी अफगान समाज का प्रतिबिंब नहीं बन सकता है. अफगानी संस्कृति को बदलने के लिये विदेशियों द्वारा किए गये राजनीतिक प्रयासों का अफगान समाज ने हमेशा विरोध किया है. सत्ता के नजदीक रहे शहरी अफगान अभिजात वर्ग की जीवनशैली के आधार पर अफगानों को आंकने में बाहरी ताकतों ने हमेशा गलतियां की हैं.
अफगानिस्तान में आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी संस्कृति के विकास को सामान्य अफगान संदेह की दृष्टि से देखते हैं. प्रोफ़ेसर थॉमस बरफ़ील्ड के शब्दों में, 'अफगान अपने समाज को चलाने में सक्षम हैं, यही बात बाहरी लोग- महाशक्ति या औपनिवेशिक शक्तियां समझना नहीं चाहतीं. अफगान के लोग खुद को बाहरी लोगों के बराबर या श्रेष्ठ मानते है.' इस बात को अमरेकी राष्ट्रपति जो बाइडेन अच्छी तरह समझ गए और उन्हे कहना पड़ा कि राष्ट्र निर्माण (Nation Building) अमेरिका का काम नहीं है. अफगान समाज की देखभाल अफगान लोगों को ही करना है, अमेरिका को यह अहसास दो दशकों के असफल सैन्य अभियानों के बाद हुआ.
किसी समाज या धर्म को उसकी संस्कार और संस्कृति से दूर करना अनुचित ही नहीं असंभव भी है
सच तो ये है कि अफगान लोग अपनी जिंदगी जीना चाहते हैं. उन्हें बाहरी ताकत और सहयोग की जरूरत तो है लेकिन अपनी संस्कृति की कीमत पर नहीं. आधुनिकता के नाम पर अफगान लोगों को पिछले 200 वर्षों से रूसी, ब्रिटिश और अमेरिकियों द्वारा बार-बार बदलने का प्रयास किया गया, लेकिन वे सफल नहीं हुए. किसी समाज या धर्म को उसके संस्कार और संस्कृति से दूर करना अनुचित ही नहीं असंभव भी है. अमेरिका और उसकी मित्र शक्ति अफगानी जनमानस की इस भावनाओं को पहचान नहीं पाई, परिणामस्वरूप उन्हें अफगानिस्तान में पराजय का सामना करना पड़ा.
तालिबान को अफगानियों के दिल और विश्व बिरादरी के विश्वास को जीतना चाहिए
अफगानिस्तान की सत्ता पर अब तालिबान का कब्जा है. हथियार के बल पर गद्दी पर बैठना और शासन करना दोनों अलग बात है. क्या तालिबान के हाथ में अफगान के संस्कार-संस्कृति सुरक्षित हैं? समय बदल रहा है, तालिबान को भी बदलना पड़ेगा. किसी भी धर्म के नाम पर या समाज सुधार के नाम पर अत्याचार और हत्या अक्षम्य है. तालिबान के लिए अफगानियों के दिल को जीतना जितना आवश्यक है, उतनी ही आवश्यकता है विश्व बिरादरी के विश्वास को जीतना.
पाकिस्तान अफगानिस्तान की भूमि को भारत के विरुद्ध इस्तेमाल करना चाहता है
पाकिस्तान कि भारत के प्रति जन्मजात कड़वाहट, वैमनस्य और हीन मानसिकता सर्व विदित है. पाकिस्तान ने भारत से बदला लेने के लिए अफगानिस्तान का कूटनीतिक इस्तेमाल किया. अफगानिस्तान का सत्ता पलट होते ही, पाकिस्तान चीन के इशारों पर अफगानिस्तान कि सत्ता पर नियंत्रण करने का प्रयास कर रहा. पाकिस्तान और चीन अफगानिस्तान की भूमि को भारत के विरुद्ध इस्तेमाल करना चाहते हैं.
भारत अफगानिस्तान का संपर्क सदैव सौहार्दपूर्ण रहा. आज भी आम अफगानियों में भारत की छवि एक विकास की सहभागी और मित्रवत देश के रूप में है. आवश्यकता है तालिबान की दूरदर्शिता की. कहते हैं, सच्ची मित्रता जहां ईश्वरीय उपहार स्वरूप है, वहीं मूर्ख की मित्रता विनाश का कारण बनती है. अब किस राह चलेगा तालिबान, यह देखना होगा.