वाट्स ऐप संदेश

Update: 2022-07-21 12:59 GMT

मोबाइल संस्कृति से संदेशों की आंधी चल पड़ी है। रोज, चौबीसों घंटे, हर पल करोड़ों-अरबों संदेश वातावरण में घूम रहे हैं। मगर इतने-इतने संदेशों के बावजूद संप्रेषण प्रभावहीन दिखाई देते हैं। इतने पर तो अब तक कोई क्रांति हो जानी चाहिए थी। मगर लोगों में आपसी समझबूझ का अभाव बना हुआ है। हालांकि त्रुटिपूर्ण और उत्तेजक संदेशों के गलत परिणाम जरूर सामने आते हैं।

बावजूद इसके, बहुतायत संदेश बिना कोई संदेश दिए, बस घूमते हैं। मोबाइल का डाटा डकारते हैं। लोगों का समय खोटा करते, आंखों की रोशनी ठगते और स्वास्थ्य चट कर जाते हैं। कुछ संदेश जान-बूझ कर केवल बवाल पैदा करने के लिए गढ़े जाते हैं। ये बीमार मानसिकता से ग्रस्त लोगों द्वारा गढ़े और कमजोर मानसिकता के लोगों के विरुद्ध आजमाए जाते हैं। ऐसे बहुतायत संदेश पढ़े ही नहीं जाते। बस इधर से उधर धकेले जाते हैं।
विगत दिनों एक मित्र को एक बहुत लंबा वाट्स ऐप संदेश मिला। इसके कई वाक्यों और शब्दों को ध्यानाकर्षण हेतु गाढ़ा किया गया था। संदेश कुछ इस प्रकार था- ''सभी से अनुरोध है कि एक बार इसे पढ़िएगा अवश्य। काफी समय के बाद किसी ने बेहद सुंदर आर्टिकल भेजा है। नींव ही कमजोर पड़ रही है गृहस्थी की…! आज हर दिन किसी न किसी का घर खराब हो रहा है।
इसके मूल कारणों पर कोई नहीं जा रहा है, जो कि इस प्रकार हैं- पीहरवालों की अनावश्यक दखलंदाजी, संस्कारहीन शिक्षा, आपसी तालमेल का अभाव, जुबानदराजी, सहनशक्ति की कमी, आधुनिकता का आडंबर, समाज का भय न होना, घमंड झूठे ज्ञान का, अपनों से अधिक गैरों की राय, परिवार से कटना, घंटों मोबाइल पर चिपके रहना, घर गृहस्थी की तरफ ध्यान न देना और अहंकार के वशीभूत होना। पहले भी तो परिवार होता था, और वह भी बड़ा, लेकिन वर्षों रिश्ते निभाए जाते थे! भय था, प्रेम था और रिश्तों की मर्यादित जवाबदेही भी।
पहले मां-बाप यह कहते थे कि मेरी बेटी गृहकार्य में दक्ष है, और अब कहते हैं कि मेरी बेटी नाजों से पली है। आज तक हमने तिनका भी नहीं उठवाया। तो फिर करेगी क्या शादी के बाद?… माताएं खुद की रसोई से ज्यादा बेटी के घर में क्या बना, इस पर ध्यान देती हैं। इन दिनों, सबसे ज्यादा महिलाओं में बदलाव आया है। दिन भर मनोरंजन, मोबाइल, स्कूटी, कार पर घूमना-फिरना, समय बचे तो बाजार जाकर शापिंग करना और ब्यूटी पार्लर। भोजन बनाने या परिवार के लिए समय नहीं है। बुजुर्ग तो हैं ही घर में बतौर चौकीदार। पहले शादी-ब्याह में महिलाएं गृहकार्य में हाथ बंटाने जाती थीं
घूंघट और साड़ी हटना तो चलो ठीक है, लेकिन बदन दिखाऊ कपड़े? बड़े-छोटे की शर्म या डर रहा क्या? मां-बाप बच्ची को शिक्षा तो बहुत दे रहे हैं, लेकिन उस शिक्षा के पीछे यह सोच नहीं है कि परिवार को शिक्षित करें। बल्कि दिमाग में यह है कि कहीं तलाक-वलाक हो जाए तो अपने पांव पर खड़ी हो जाए, खुद कमा-खा ले। जब ऐसी अनिष्ट सोच और आशंका पहले ही दिमाग में हो तो नतीजा तो वही आएगा।
पढ़े-लिखे युवक-युवतियां तलाकनामा तो जेब में लेकर घूमते हैं। स्त्री का चुप रहना कमजोरी समझा जाता है। उन्हें हम किसी से कम नहीं वाली सोच जो विरासत में मिली है। झुक गए तो मां-बाप की इज्जत चली जाएगी। आज समाज, सरकार और सभी चैनल केवल महिलाओं के हित की बात करते हैं। पुरुष तो मानो अत्याचारी और नरभक्षी हैं। बेटा भी तो पुरुष ही है। एक अच्छा पति भी तो पुरुष ही है। जो खुद सुबह से शाम तक दौड़ता है, परिवार की खुशहाली के लिए।… स्त्री को सारी आजादी चाहिए।… इस कड़वे सत्य से सतर्क हो जाएं।''

सोर्स-JANSATTA

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