जनता से रिश्ता वेबडेस्क : बच्चों की गर्मी की छुट्टियां पूरी हो गई हैं। आजकल वे फिर से स्कूल जाने लगे हैं, हालांकि अधिकांश छुट्टियों के आखिरी दिन स्कूल का सोच कर थोड़े तनाव में ही रहे हैं। थोड़े दिनों में फिर उनकी जिंदगी व्यवस्था के घेरे में कैद हो जाने वाली है, जिसकी दहशत उनके अबोध मन में बराबर बनी हुई है। फिर से वही होमवर्क, वही साप्ताहिक परीक्षाएं, वही भागदौड़। स्कूल उनमें भय भरने लगा है।
बच्चे फिर वही बहाने बनाने शुरू करेंगे, कभी सिर दर्द, कभी पेट दर्द। दरअसल, हमारी स्कूली व्यवस्था ही कुछ ऐसी बन गई है कि वहां खुशी-खुशी, उत्साह से बच्चे कम ही सीखते हैं। हमारी शिक्षा-व्यवस्था की खामियों और उसकी सुस्ती पर सवाल जब-तब उठाए जाते रहे हैं, विशेषकर बच्चों और बचपन को लेकर इस व्यवस्था के बेहतर विकल्प खोजे जाने की बात सालों से की जाती रही है। मगर इसमें सुधार के तमाम प्रयास विफल ही साबित हुए हैं।
अक्सर यह देखने में आता है कि बच्चे जो पढ़ते हैं उसका मतलब वे नहीं जानते, न ही उन्हें बताया जाता है। इस तरह बहुत सारी चीजों का उन्हें बोध नहीं हो पाता। आज भी बहुतेरे बच्चों को इस सवाल का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दिया जाता कि पढ़ना क्यों जरूरी है। उन्हें यही समझाया जाता है कि पढ़ोगे-लिखोगे नहीं तो नौकरी अच्छी नहीं मिलेगी, नौकरी अच्छी नहीं मिलेगी, तो जीवन खुशहाल नहीं होगा।
इस तरह वे पढ़ने को एक ऐसा काम समझ कर (जो सजा के तौर पर उनसे करवाया जा रहा है) उसे समाप्त करके हल्का महसूस करते हैं। मजेदार बात यह है कि आजकल बच्चों को खाना क्यों जरूरी है, तक का कारण बताना पड़ता है अन्यथा भोजन के प्रति रुचि भी वे महसूस नहीं करते। यह अच्छी बात है कि तार्किकता बढ़ रही है, लेकिन यह बोध के कम होने की तरफ भी संकेत करता है।
दूसरी तरफ हम देखते हैं कि बच्चे टीवी के पीछे पड़े रहते हैं। दृश्य की मांग इतनी बढ़ गई है कि टीवी ही नहीं मोबाइल में वीडियो उन्हें दिखा दो, घंटों लगातार देखते हुए भी उनके मन में यह सवाल नहीं आता कि इसे देखना क्यों जरूरी है? क्योंकि गति का अपना आनंद है। बचपन को जो गति चाहिए, जैसा कौतूहल, जिस तरह का विस्मय, जैसी कल्पनाएं, कहानियां उनको चाहिए तकनीक उनको वह सब उपलब्ध करवा रही है। खेल का मैदान और परियों की कथाएं सब सिमट कर स्क्रीन तक आ गई हैं और स्क्रीन ने अपने काम को बखूबी अंजाम भी दिया है। इसके परिणाम क्या होंगे, यह एक अलग बहस का विषय है।
पंद्रह साल तक के बच्चे भी अमूमन अपने पाठ्यक्रम से इतर किसी भी तरह की पुस्तक पढ़ने में रुचि नहीं रखते। आडियो का जमाना ही अब लद गया है। बच्चे अब कहानियां पढ़ने में नहीं, देखने में रुचि लेते हैं। वे खुद कल्पना करने की जहमत नहीं उठाना चाहते, प्रवाह में बहना चाहते हैं। कहानियां सुनने के लिए जिस धैर्य की जरूरत होती है, 'आगे क्या होगा' की जो जिज्ञासा कहानी को कहानी बनाती है वह शायद हर जगह दुर्लभ होती जा रही है।
मोबाइल और कंप्यूटर स्क्रीन ने बहुत कुछ बदल दिया है।
इतना कि एक ही बात जो वास्तव में घटित होती है, उसका तो असर बहुत कम होता है या नहीं ही होता है, लेकिन वही बात जब विज्ञापन या वीडियो के माध्यम से बच्चों तक पहुंचती है तो बिल्कुल कम उम्र के बच्चे भी दोस्तों के बीच चटखारे लेकर बताते देखे जाते हैं। भावनाओं का व्यक्ति से वस्तु में स्थानांतरण तो अब सहज स्वीकार्य हो गया है, मगर बच्चों को तो भगवान का रूप समझ कर शुद्ध प्रकृति ही समझा गया है। ऐसे में इतना तेज बदलाव क्या गुल खिलाएगा यह तो भविष्य का सवाल है।
प्रश्न है कि क्या तकनीक ने जो कुछ करके बच्चों को अपना बना लिया, जीवन के अन्य क्षेत्रों, मसलन शिक्षा, व्यवहार आदि में भी उसे लागू करके क्या कोई सार्थक परिणाम हासिल किये जा सकते हैं? तकनीकी काल्पनिक प्रस्तुतीकरण जिस हद तक और जैसी शीघ्रता से हर उम्र के वर्ग को अपनी तरफ खींचने में सक्षम हुई है, क्या उससे जड़ हुई शिक्षा पद्धति को गतिशील बना कर बचपन के साथ उसका अहस्तक्षेपकारी और सहज संबंध बनाने की कोई संभावना है? इस बारे में न केवल सोचा जाए, बल्कि प्रयास भी होने चाहिए।
और ये प्रयास सरकारी या प्रशासनिक ही नहीं, बल्कि निजी भी हो, ताकि अपने-अपने बच्चे की व्यक्तिगत पसंद और जरूरतों का खयाल भी हर किसी को रहे। यदि ऐसा संभव हो सके तो शिक्षा ऊपर से थोपी गई कोई चीज न होकर जीवन का सहज हिस्सा बनने में सक्षम हो सकेगी। कम मेहनत और कम तनाव के साथ हम अगली पीढ़ी के साथ एक सीधा और मजबूत पुल भी बना पाएंगे।JANSATTA