केंद्रीय बैंक रुपये की कमजोरी थामने की निरंतर कोशिश कर रहा है, पर उसे अभी तक कुछ खास सफलता नहीं मिली है। 15 जून को अमेरिका के फेडरल रिजर्व ने ब्याज दर में 75 आधार अंकों की बढ़ोतरी की थी और कहा जा रहा है कि जुलाई में प्रस्तावित अगली बैठक में भी फेडरल रिजर्व ब्याज दर में बढ़ोतरी कर सकता है। वर्ष 2022 में अब तक फेडरल रिजर्व ब्याज दर में 150 आधार अंक का इजाफा कर चुका है।बैंक ऑफ इंग्लैंड ने भी 16 जून को ब्याज दर में 1.25 प्रतिशत की वृद्धि की है, जो विगत 13 वर्षों में सबसे अधिक है। यूरो जोन में महंगाई दर 40 साल के रिकॉर्ड को तोड़कर आठ प्रतिशत से ऊपर के स्तर पर पहुंच गई है। भारतीय रिजर्व बैंक ने हालिया मौद्रिक समीक्षा में रेपो दर में 0.50 प्रतिशत का इजाफा किया है। इसके पहले, मई के प्रथम सप्ताह में केंद्रीय बैंक द्वारा रेपो दर में 0.40 की बढ़ोतरी की गई थी।रेपो दर में ताजा बढ़ोतरी के साथ यह बढ़कर 4.90 प्रतिशत पर पहुंच गई है। रेपो दर में वृद्धि के बाद बैंक उधारी दरों में बढ़ोतरी कर रहे हैं। भारतीय स्टेट बैंक ने 15 जून को उधारी दर में 20 आधार अंकों की बढ़ोतरी की है। रुपये में कमजोरी आने से लोगों की खरीदने की क्षमता घट जाती है। मौजूदा परिदृश्य में भारत के लोगों की क्रय शक्ति कम हो गई है। ऐसी अवस्था में लोगों की कमाई कम नहीं होती है, लेकिन मुद्रा की कीमत कम हो जाने की वजह से लोगों को किसी वस्तु को खरीदने के लिए ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ते हैं, जिसके कारण वे न तो जरूरत के सामान खरीद पाते हैं और न ही बचत कर पाते हैं।
साथ ही, आर्थिक गतिविधियां धीमी पड़ने लगती हैं। उत्पादन और विकास दर, दोनों में गिरावट दर्ज की जाती है। रोजगार सृजन बंद हो जाता है और लोगों के हाथों से रोजगार फिसलने लगते हैं। महंगाई की वजह से विविध उत्पादों की मांग में कमी आ जाती है और मांग में कमी आने से कल-कारखानों को उत्पादन घटाना पड़ता है, जिसके कारण कंपनियों को नुकसान उठाना पड़ता है और लंबी अवधि तक नकारात्मक स्थिति बनी रहने से कंपनियां बंद भी हो जाती हैं।वास्तव में वर्ष 1960 से भारत में कच्चे तेल की खपत में तेजी आने लगी, क्योंकि विकास के विविध मानकों को गतिशील रखने के लिए देश में ज्यादा कच्चे तेल की जरूरत थी। वर्ष 1965 तक अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपये की कीमत को पाउंड में मापा जाता था, जबकि वर्ष 1966 से अंतरराष्ट्रीय बाजार में रुपये को डॉलर के बरक्स मापा जाने लगा। वर्ष 1966 में एक डॉलर की कीमत 7.5 रुपये थी, जो अब 80 पहुंचने के कगार पर है।
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए उसकी मुद्रा की कीमत का कम होना अच्छा नहीं माना जाता है। वहीं, रुपये में आ रही कमजोरी को जल्दबाजी में रोकने की कोशिश करना भी सही नहीं है, क्योंकि नीतिगत दरों में बढ़ोतरी से महंगाई पर कुछ हद तक लगाम लगाई जा सकती है, लेकिन इससे निवेश, ऋण वृद्धि, रोजगार सृजन आदि में कमी आ सकती है, जो विकास की गति को तेज करने में अहम भूमिका निभाते हैं।
SOURCE-AMARUJALA