इस दौरान उन्हें पहले वर्ष 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलेगा, जो बढ़ते-बढ़ते चौथे वर्ष में चालीस हजार रुपये हो जाएंगे। इस सेवा से मुक्त होने पर उन्हें 11.71 लाख रुपये का एकमुश्त सेवा निधि पैकेज मिलेगा, जो टैक्स फ्री होगा। इस पैकेज के लिए जवानों के वेतन से हर महीने 30 प्रतिशत की कटौती होगी तथा इतनी ही राशि सरकार भी उनके खाते में डालेगी। लेकिन ये अग्निवीर ग्रेच्युटी और पेंशन के अधिकारी नहीं होंगे।इन अग्निवीरों में महिला सैनिक भी होंगी। यह योजना निश्चय ही निम्न मध्य वित्तीय परिवार के बच्चों को अपनी तरफ खींचेगी। मगर चार वर्ष बाद उनका भविष्य क्या होगा, इसकी कोई स्पष्ट नीति सरकार ने नहीं घोषित की है। सैन्य विशेषज्ञ भी इसे लेकर चिंतित हैं और विरोधी दलों के लोग इसे मोदी सरकार की चुनावी रणनीति का शिगूफा बता रहे हैं।
रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल पीआर शंकर ने इसे 'किंडर गार्डेन' आर्मी बताया है, तो पूर्व सैन्य अधिकारी विनोद भाटिया के अनुसार, इससे समाज के सैन्यीकरण का खतरा है। इन दोनों की आशंकाएं निर्मूल नहीं हैं। संविदा के ये सैन्यकर्मी जब चार साल बाद सेवा मुक्त होंगे, तब करेंगे क्या! युवावस्था में नौकरी न होने की हताशा में शस्त्र संचालन में निपुण ये युवा अपराध की तरफ भी जा सकते हैं।इसलिए पूर्व सैन्य अधिकारियों का मानना है कि इन 'अग्निवीरों' के भविष्य को मजबूत करने की पूरी जिम्मेदारी सरकार को लेनी चाहिए। हालांकि रक्षामंत्री ने यह भी कहा है कि इनमें से 25 फीसदी को नियमित सेना में लिया जाएगा। लेकिन सिर्फ उन्हें जो हर तरह से फिट होंगे। शेष जवानों को शस्त्र संचालन के अलावा कुछ व्यावसायिक प्रशिक्षण भी दिया जाएगा, ताकि इस शॉर्ट टर्म सेवा के बाद उन्हें नौकरी पाने या स्वरोजगार शुरू करने में कोई परेशानी न हो।
लेकिन हर चार साल बाद जिन 40 हजार युवाओं को सेना से मुक्त कर दिया जाएगा, क्या वे सभी नौकरी पा जाएंगे? इसीलिए कुछ रक्षा विशेषज्ञों ने ये सवाल भी उठाए हैं कि इस अल्प अवधि की संविदा के आधार पर नौकरी पाए इन जवानों को नियमित सेना से अलग कैसे माना जाएगा? और क्या यह कोई अनिवार्य सैन्य शिक्षा योजना है? यदि ऐसा है, तो पहले से ही मौजूद एनसीसी को क्यों नहीं फिर से सक्रिय किया गया।एनसीसी (नेशनल कैडेट कोर) के तहत सेकेंडरी और यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे विद्यार्थियों को सैन्य प्रशिक्षण दिया जाता है। गौरतलब है कि 1914 में पहले विश्वयुद्ध के समय युवाओं को सैन्य शिक्षा देने के लिए यूरोप के कई देशों में अनिवार्य सैनिक सेवा या प्रशिक्षण दिए जाने की शुरुआत हुई थी। आज भी सैन्य शिक्षा विश्व के 15 देशों में अनिवार्य है।
अपुष्ट सूचनाएं हैं कि चीन में भी यह ट्रेनिंग अनिवार्य है। किसी प्रभुसत्ता संपन्न राष्ट्र में सेना की भूमिका अहम होती है-बाहरी हमलों के समय और घरेलू संकट में भी। ऐसे में अनिवार्य सैन्य शिक्षा की अवहेलना नहीं की जा सकती। परंतु इसके लिए सरकार को अपनी नीति जनता के समक्ष स्पष्ट रखनी चाहिए