भारत छोड़ो आंदोलन के अगुआ रहे दिल्ली के लाल वैद्य किशन लाल ने सीएम की कुर्सी तक ठुकरा दी थी। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अंग्रेजों ने कई बार उन्हें हवालात में डाला। यहां तक कि 1947 तक वह लाल किले में बंदी रहे।
आजादी मिलने के बाद 1952 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें दिल्ली के मुख्यमंत्री पद का ऑफर दिया। लेकिन सियासत में जाना उन्होंने स्वीकार नहीं किया। मुख्यमंत्री का पद ठुकराकर किशन लाल ने महात्मा गांधी के कार्यों को आगे बढ़ाना ही बेहतर समझा। खादी और चरखे के जरिए दिल्ली देहात को अपने स्तर पर स्वावलंबी बनाने की ताउम्र उन्होंने कोशिश की।
वैद्य किशनलाल का जन्म पालीवाल परिवार में 27 अगस्त 1912 को दिल्ली के नजफगढ़ में हुआ था। महात्मा गांधी का उन पर ऐसा असर पड़ा कि 24 साल की उम्र में आते-आते 1936 में आजादी की अहिंसक लड़ाई में कूद पड़े। दिसंबर 1936 से सितंबर 1941 तक के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भागीदार रहे। इससे यह अंग्रेजों के निशाने पर आ गए और अक्तूबर 1941 में उन्हें जेल भेज दिया।
जनवरी 1943 तक पंजाब की फिरोजपुर जेल में वह कैदी रहे। इसके बाद किशन लाल को अंग्रेजों ने छोड़ दिया था। उस वक्त भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था। किशन लाल जेल की यातना से घबराकर घर नहीं बैठे। इसकी जगह वह दुबारा से जंग-ए-आजादी में कूद पड़े।
जनवरी 1943 से जनवरी 1944 तक सक्रिय भागीदारी निभाई। इस दौरान कांग्रेस ने किशन लाल को दिल्ली के आंदोलनकारियों का नेतृत्व सौंपा था। उनकी अगुवाई में दिल्ली में भारत छोड़ो आंदोलन बढ़ा। जनवरी 1945 में वह दोबारा जेल गए और अगस्त 1947 तक रहे।
आजादी के बाद गांधी जी के कामों को संभाला
किशन लाल ने अपनी जवानी के 11 साल आजादी की लड़ाई में लगा दिए थे। ज्यादातर वक्त वह जेल में ही रहे। आजादी के बाद उन्होंने ग्रामीणों को चरखा कताई के लिए प्रोत्साहित किया। ग्रामीण कुटीर उद्योग में युवकों को रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाए। क्षेत्र में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने की दिशा में कार्य किया।
तिब्बिया कालेज से वैद्यक की शिक्षा प्राप्त करने के कारण स्वयं भी लोगों का इलाज करते थे। 15 अगस्त 1947 को देश स्वतंत्र होने के दौरान उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर कांग्रेस को तिलाजंलि दे दी और वह समाज सेवा में जुट गए।