राम मंदिर सिर्फ सियासी नहीं

अयोध्या का राम मंदिर सांस्कृतिक पुनरोत्थान का एक उदाहरण है, तो राजनीति का भी मुद्दा है। 1989 से 2019 तक के लोकसभा चुनाव के घोषणा-पत्रों में भाजपा इसे शामिल करती रही है। एक राजनीतिक दल सांस्कृतिक विकास और बदलाव की बातें नहीं करता, क्योंकि वे चुनावी मुद्दे नहीं आंके जाते। अयोध्या में भव्य राम मंदिर …

Update: 2023-12-28 13:33 GMT

अयोध्या का राम मंदिर सांस्कृतिक पुनरोत्थान का एक उदाहरण है, तो राजनीति का भी मुद्दा है। 1989 से 2019 तक के लोकसभा चुनाव के घोषणा-पत्रों में भाजपा इसे शामिल करती रही है। एक राजनीतिक दल सांस्कृतिक विकास और बदलाव की बातें नहीं करता, क्योंकि वे चुनावी मुद्दे नहीं आंके जाते। अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण कराएंगे, इस एक मुद्दे ने भाजपा को 2 सांसदों से 303 सांसदों तक की अप्रत्याशित छलांग लगाने की ताकत दी है। अन्य मुद्दों की भी भूमिकाएं रही हैं, लेकिन राम मंदिर के उद्घोष पर जो उन्माद और धु्रवीकरण, भाजपा के पक्ष में, पैदा होता रहा है, उससे राजनीतिक लक्ष्य भी साधे गए हैं। आस्थाएं कई और मुद्दों के प्रति भी हो सकती हैं। आस्थाएं अयोध्या, काशी और मथुरा तक ही सीमित क्यों हैं? भाजपा और संघ परिवार के छाया-चेहरे ही अदालतों में इन मुद्दों की लड़ाइयां लड़ रहे हैं। भाजपा माने अथवा न माने, राम मंदिर 2024 के आम चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा साबित होगा, लेकिन फिर भी राम मंदिर समारोह को पूरी तरह सियासी करार नहीं दिया जा सकता। गांव-गांव, घर-घर जाना, प्रभु राम की तस्वीर के साथ प्रसाद बांटना और अयोध्या में दर्शन करने आने के आमंत्रण और इन गतिविधियों के लिए संघ परिवार के स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं को ड्यूटी पर लगाने के अभिप्राय क्या हैं? जाहिर है कि रामत्व के जरिए हिंदुत्व के प्रसार का भी राजनीतिक लक्ष्य है। यह भाजपा का प्रचार-तंत्र भी है। यदि ज्योतिषपीठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती कहते हैं कि चुनावी फायदे के लिए भाजपा अयोध्या में राम मंदिर के एक ही हिस्से का उद्घाटन करवा रही है, भगवान राम की बाल्य प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा चुनाव के मद्देनजर कराई जा रही है, तो उन्होंने पूर्णत: गलत नहीं कहा है। शंकराचार्य को कांग्रेस और भाजपा में बांट कर नहीं देखा जा सकता। सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने एक ही धर्म के राजनीतिकरण के कारण राम मंदिर समारोह का बहिष्कार किया है।

पार्टी ने इसे ‘संविधान-विरोधी’ करार दिया है, क्योंकि संविधान में ‘धर्मनिरपेक्ष भारत’ की बात कही गई है। हम इस दलील को नहीं मानते। वैसे भी वामपंथी दल वैचारिक और मानसिक स्तर पर चीन के ज्यादा करीब रहे हैं। उन्होंने भारत-चीन युद्ध के दौरान भी देश का साथ नहीं दिया था। बहरहाल लोकतंत्र में राजनीति को खारिज नहीं किया जा सकता। राजनीति से आम आदमी भी जुड़ा है। यदि भगवान राम के दर्शनार्थ अथवा नया, भव्य मंदिर देखने देश भर से भक्तगण उमड़ते हैं, अयोध्या में भक्ति और भजन की तरंगें प्रवाहित होती हैं, यदि विरोधी राजनीति के नेतागण भी अपने ‘आराध्य’ के लिए अयोध्या मंदिर में जुटते हैं, तो उसे महज ‘राजनीति’ भी न कहा जाए। भक्ति, अध्यात्म, दर्शन, आस्था और राजनीति की परिभाषाएं भिन्न हैं। बेशक राम मंदिर के मुद्दे पर भाजपा का राजनीतिक विस्तार हुआ है। अन्य धर्मावलंबी, संप्रदाय, मत के लोग और समाज भी समारोह मनाते हैं। प्रधानमंत्री अपने आवास पर ईसाइयों को आमंत्रित करते हैं, ताकि ईसा मसीह की जयंती का समारोह मनाया जा सके। प्रधानमंत्री ‘सिख साहबजादो’ं के बलिदान पर ‘वीर बाल दिवस’ आयोजन में भी शिरकत करते हैं। प्रधानमंत्री को हमने मस्जिद में भी देखा है। प्रधानमंत्री एक भक्त, आराधक के तौर पर ‘हिंदू’ भी हैं, लिहाजा सिर्फ मोदी-विरोधी सियासत के कारण राम मंदिर पर सवाल उठाना अथवा उसे ‘सांप्रदायिक’ करार देना तार्किक नहीं है। जिस तरह 1990 के दशक में अयोध्या की आड़ में राजनीति की गई, इस बार उस राजनीति से बचना चाहिए।

By: divyahimachal

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